Friday, July 21, 2017

ब्राह्मण सबसे बड़ा देश का दुश्मन

ब्राह्मण सबसे बड़ा देश का दुश्मन ,पिछड़े समझ नहीं पा रहे है मनुवादियो के षड्यंत्र को :

1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी जो मोरार जी देसाई ब्राह्मण थे जिनको जय प्रकाश नारायण द्वारा प्रधानमंत्री पद के लिऐ नामांकित किया था।
चुनाव में जाते समय जनता पार्टी ने अभिवचन दिया था कि यदि उनकी सरकार बनती है तो वे काका कालेलकर कमीशन लागू करेंगे। जब उनकी सरकार बनी तो OBC का एक प्रति निधिमंडल मोरार जी को मिला और काका कालेलकर कमीशन लागू करने के लिऐ मांग की मगर मोरार जी ने कहा कि कालेलकर कमीशन की रिपोर्ट पुरानी हो चुकी है, इसलिए अब बदली हुई परिस्थिति मेँ नयी रिपोर्ट की आवश्यकता है। यह एक शातिर बाह्मण की OBC को ठगने की एक चाल थी।
प्रतिनिधिमडंल इस पर सहमत हो गया और B.P. Mandal जो बिहार के यादव थे, उनकी अध्यक्षता मेँ मंडल कमीशन बनाया गया।.
बी पी मंडल और उनके कमीशन ने पूरे देश में घूम-घूमकर 3743 जातियोँ को OBC के तौर पर पहचान किया जो 1931 की जाति आधारित गिनती के अनुसार भारत की कुल जनसंख्या 52% थे। मंडल कमीशन ने अपनी रिपोर्ट मोरारजी सरकार को सौपते ही, पूरे देश मेँ बवाल खङा हो गया। जनसंघ के 98 MPs के समर्थन से बनी जनता पार्टी की सरकार के लिए मुश्किल खङी हो गयी।
उधर अटल बिहारी बाजपेयी के नेतृत्व मेँ जनसंघ के MPs ने दबाव बनाया कि अगर मंडल कमीशन लागू करने की कोशिश की गयी तो वे सरकार गिरा देंगे। दूसरी तरफ OBC के नेताओँ ने दबाव बनाया ।
फलस्वरूप अटल बिहारी बसजपेयी ने मोरारजी की सहमति से जनता पार्टी की सरकार गिरा दी।
इसी दौरान भारत की राजनीति मेँ एक Silent revolution की भूमिका तैयार हो रही थी जिसका नेतृत्व आधुनिक भारत के महानतम् राजनीतिज्ञ कांशीराम जी कर रहे थे।
कांशीराम साहब और डी के खापर्डे ने 6 दिसंबर 1978 में अपनी बौद्धिक बैँक बामसेफ की स्थापना की जिसके माध्यम से पूरे देश मेँ OBC को मंडल कमीशन पर जागरण का कार्यक्रम चलाया। कांशीराम जी के जागरण अभियान के फलस्वरूप देश के OBC को मालुम पड़ा कि उनकी संख्या देश मेँ 52% मगर शासन प्रशासन में उनकी संख्या मात्र 2% है। जबकि 15% तथाकथित सवर्ण प्रशासन में 80% है। इस प्रकार सारे आंकङे मण्डल की रिपोर्ट मेँ थे जिसको जनता के बीच ले जाने का काम कांशीराम जी ने किया।
अब OBC जागृत हो रहा था। उधर अटल बिहारी ने जनसंघ समाप्त करके BJP बना दी। 1980 के चुनाव मेँ संघ ने इंदिरागांधी का समर्थन किया और इंन्दिरा जो 3 महीने पहले स्वयं हार गयी थी 370 सीट जीतकर आयी।

इसी दौरान गुजरात में आरक्षण के विरोध में प्रचंड आन्दोलन चला।
मजे की बात यह थी कि इस आन्दोलन में बङी संख्या OBC स्वयँ सहभागी था, क्योँकि ब्राह्मण-बनिया "मीडीया" ने प्रचार किया कि जो आरक्षण SC,ST को पहले से मिल रहा है वह बढ़ने वाला है।
गुजरात में अनु. जाति के लोगों के घर जलाये गये। नरेन्द्र मोदी इसी आन्दोलन के नेतृत्वकर्ता थे।

कांशीराम जी अपने मिशन को दिन-दूनी रात-चौगुनी गति से बढा रहे थे।
ब्राह्मण अपनी रणनीति बनाते पर
उनकी हर रणनीति की काट कांशीराम जी के पास थी। कांशीराम ने वर्ष 1981 में DS4 ( DSSSS) नाम की "आन्दोलन करने वाली विंग" को बनाया। जिसका नारा था 'ब्राह्मण बनिया ठाकुर छोङ बाकी सब हैं DS4!'
DS4 के माध्यम से ही कांशीराम जी ने एक और प्रसिद्ध नारा दिया "मंडल कमीशन लागु करो वरना सिँहासन खाली करो।' इस प्रकार के नारो से पूरा भारत गूँजने लगा।

1981 में ही मान्यवर कांशीराम ने हरियाणा का विधानसभा चुनाव लङा, 1982 मेँ ही उन्होने जम्मू काश्मीर का विधान सभा का चुनाव लङा।
अब कांशीराम जी की लोकप्रियता अत्यधिक बढ गयी।
ब्राह्मण-बनिया "मीडिया" ने उनको बदनाम करना शुरू कर दिया। उनकी बढती लोकप्रियता से इंन्दिरा गांधी घबरा गयीं।
इंन्दिरा को लगा कि अभी-अभी जेपी के जिन्नसे पीछा छूटा कि अब ये कांशीराम तैयार हो गये। इंन्दिरा जानती थी कांशीराम जी का उभार जेपी से कहीँ ज्यादा बङा खतरा ब्राह्मणोँ के लिये था। उसने संघ के साथ मिलने की योजना बनाई।
अशोक सिंघल की एकता यात्रा जब दिल्ली के सीमा पर पहुँची, तब इंन्दिरा गांधी स्वयं माला लेकर उनका स्वागत करने पहुंची।

इस दौरान भारत में एक और बङी घटना घटी।
भिंडरावाला जो खालिस्तान आंदोलन का नेता था, जिसको कांग्रेस ने अकाल तख्त का विरोध करने के लिए खङा किया था, उसने स्वर्णमंदिर पर कब्जा कर लिया।
RSS और कांग्रेस ने योजना बनाई अब मण्डल कमीशन आन्दोलन को भटकाने के लिऐ हिन्दुस्थान vs खालिस्थान का मामला खङा किया जाय। इंन्दिरा गांधी आर्मी प्रमुख जनरल सिन्हा को हटा दिया और एक साऊथ के ब्राह्मण को आर्मी प्रमुख बनाया। जनरल सिन्हा ने इस्तीफा दे दिया।
आर्मी में भूचाल आ गया। नये आर्मी प्रमुख इंन्दिरा गांधी के कहने पर OPERATION BLUE STAR
की योजना बनाई और स्वर्ण मंदिर के अन्दर टैँक घुसा दिया।
पूरी आर्मी हिल गयी। पूरे सिक्ख समुदाय ने इसे अपना अपमान समझा और 31 Oct. 1984 को इंन्दिरा गांधी को उनके दो Personal guards बेअन्तसिह और सतवन्त सिँह, जो दोनो अनुसुचित जाति के थे, ने इंन्दिरा गांधी को गोलियों से छलनी कर दिया।
माओ अपनी किताब 'ON CONTRADICTION' में लिखते हैं कि शासक वर्ग किसी एक षडयंत्र को छुपाने के लिऐ दुसरा षडयंत्र करता है, पर वह नहीँ जानता कि इससे वह अपने स्वयँ के लिए कोई और संकट खङा कर देता है।' माओकी यह बात भारतीय राजनीति के परिप्रेक्ष्य मेँ सटीक साबित होती है।
मंडल कमीशन को दबाने वाले षडयंत्र का बदला शासक वर्ग ने 'इंन्दिरा गांधी' की जान देकर चुकाया।
इंन्दिरा गांधी की हत्या के तुरन्त बाद राजीव गांधी को नया प्रधानमंत्री मनोनीत कर दिया गया। जो आदमी 3 साल पहले पायलटी छोङकर आया था, वो देश का 'मुगले आजम' बन गया। इंन्दिरा गांधी की अचानक हत्या से सारे देश मेँ सिक्खोँ के विरूद्ध माहौल तैयार किया गया। दंगे हुऐ। अकेले दिल्ली में 3000 सिक्खो का कत्लेआम हुआ जिसमें तत्कालीन मंत्री भी थे। उस दौरान राष्ट्रपति श्री ज्ञानी जैल सिँह का फोन तक प्रधनमंत्री राजीव गांधीने रिसीव नहीँ किये। उधर कांशीराम जी अपना अभियान
जारी रखे हुऐ थे। उन्होनेँ अपनी राजनीतिक पार्टी BSP की स्थापना की और सारे देश में साईकिल यात्रा निकाली। कांशीराम जी ने एक नया नारा दिया "जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी ऊतनी हिस्सेदारी।"

कांशीराम जी मंडल कमीशन का मुद्दा बङी जोर शोर से प्रचारित किया, जिससे उत्तर भारत के पिछङे वर्ग मेँ एक नयी तरह की सामाजिक, राजनीतिक चेतना जागृत हुई।
इसी जागृति का परिणाम था कि पिछङे वर्ग नया नेतृत्व जैसे कर्पुरी ठाकुर, लालु, मुलायम का उभार हुआ।
अब कांशीराम शोषित वंचित समाज के सबसे बङे नेता बनकर उभरे। वही 1984 का चुनाव हुआ पर इस चुनाव कांशीराम ने सक्रियता नहीँ दिखाई ।पर राजीव गांधी को सहानुभुति लहर का इतना फायदा हुआ कि राजीव गांधी 413 MPs चुनवा कर लाये। जो राजीव जी के नाना ना कर सके वह उन्होने कर दिखाया।
सरकार बनने के बाद फिर मण्डल का जिन्न जाग गया। OBC के MPs संसद मेँ हंगामे शुरू कर दिये । शासक वर्ग फिर नयी व्युह रचना बनाने की सोची।

अब कांशीराम जी के अभियानो के कारण OBC जागृत हो चुका था। अब शासक वर्ग के लिऐ मंडल कमीशन का विरोध करना संभव नहीँ था।
2000 साल के इतिहास मेँ शायद ब्राह्मणोँ ने पहली बार कांशीराम जी के सामने असहाय महसूस किया।
कोई भी राजनीतिक उदेश्य इन तीन साधनोँ से प्राप्त किया जा सकता है वह है-
1) शक्ति संगठन की,
2) समर्थन जनता का और
3) दांवपेच नेता का।

कांशीराम जी के पास तीनो कौशल थे और दांवपेच के मामले मेँ वे ब्राह्मणोँ से 21 थे। अब यह समय था जब कांग्रेस और संघ की सम्पूर्ण राजनीतिक केवल कांशीराम जी पर ही केन्द्रित हो गया।
1984 के चुनावोँ में बनवारी लाल पुरोहित ने मध्यस्थता कर राजीव गांधी और संघ का समझौता करवाया एवं इस चुनाव मेँ संघ ने राजीव गांधी का समर्थन किया। गुप्त समझौता यह था कि राजीव गांधी राम मंदिर आन्दोलन का समर्थन करेगेँ और हम मिलकर रामभक्त OBC को मुर्ख बनाते है।
राजीव गांधी ने ही बाबरी मस्जिद के ताले खुलवाये, उसके अन्दर राम के बाल्यकाल की मूर्ति भी रखवाईं ।

अब ब्राह्मण जानते थे अगर मण्डल कमीशन का विरोध करते है तो "राजनीतिक शक्ति" जायेगी, क्योकि 52% OBC के बल पर ही तो वे बार बार देश के राजा बन जाते थे, और समर्थन करते हैं तो कार्यपालिका में जो उन्होने स्थायी सरकार बना रखी थी वो छिन जाने खा खतरा था।
विरोध करें तो खतरा, समर्थन करें तो खतरा। करें तो क्या करें?

तब कांग्रेस और संघ मिलकर OBC पर विहंगम दृष्टि डाली तो उनको पता चला कि पूरा OBC रामभक्त है।
उन्होँने मंडल के आन्दोलन को कमंडल की तरफ मोङने का फैसला किया। सारे देश में राम मंदिर अभियान छेङ दिया। बजरंग दल का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया जो पिछङा था।
कल्याण सिंह, रितंभरा, ऊमा भारती, गोविन्दाचार्य आदि वो मुर्ख OBC थे जिनको संघ ने सेनापति बनाया।
जिस प्रकार ये लोग हजारोँ सालो से ये पिछङो में विभीषण पैदा करते रहे इस बार भी इन्होंने ऐसा ही किया।

वहीँ दूसरी तरफ अनियंत्रित राजीव गांधी ने खुद को अन्तर्राष्ट्रीय नेता बनाने एवं मंडल कमीशन का मुद्दा दबाने के लिऐ प्रभाकरण से समझौता किया तथा प्रभाकरण को वादा किया कि जिस प्रकार उसकी माँ (इंदिरागांधी) ने पाकिस्तान का विभाजन कर देश-दुनिया की राजनीति में अपनी धाक पैदा की वैसे वह भी श्रीलंका का विभाजन करवाकर प्रभाकरण को तमिल राष्ट्र बनवाकर देगा।
वहीं राजीव गांधी की सरकार में वी.पी. सिंह रक्षा मंत्री थे।
बोफोर्स रक्षा सौदे में भ्रष्टाचार राजीव गांधी की सहायता से किया गया जिसको उजागर किया गया। यह राजीव गांधी की साख पर बट्टा था।
वीपी सिंह इसको मुद्दा बनाकर अलग जन मोर्चा बनाया। अब असली घमासान था। 1989 के चुनाव की लङाई दिलकश हो चली थी। पूरे उत्तर भारत में कांशीराम जी बहुजन समाज के नायक बनकर उभरे। उन्होने 13 जगहो पर चुनाव जीता जबकि 176 जगहोँ पर वे कांग्रेस का पत्ता साफ करने में सफल हो गये।
राजीव गांधी जो कल तक दिल्ली का मुगल था कांशीराम जी के कारण वह रोड मास्टर बन गया। कांग्रेस 413 से धङाम 196 पर आ गयी। वी पी सिंह के गठबनधन 144 सीटें मिली, जिसके कारण वी पी सिंह ने चुनाव में जाने की घोषणा की और कहा कि यदि उनकी सरकार बनी तो मंडल कमीशन लागू करेंगे।
चन्द्रशेखर व चौधरी देवीलाल के साथ मिलकर सरकार बनाने की योजना वी पी सिंह द्वारा बनायी गयी। चौधरी देवीलाल प्रधानमंत्री पद के सबसे बङे दावेदार थे पर योजना इस प्रकार से बनायी गयी थी कि संसदीय दल की बैठक में दल का नेता (प्रधानमंत्री) चुनने की माला चौ. देवीलाल के हाथ में दे दी जाए । चौ. देवीलाल (इस झूठे सम्मान से कि नेता चुनने का हक़ उनको दिया गया) माला वी पी के गले में डाल दिया। इस प्रकार वी पी सिंह नये प्रधानमंत्री बने।
प्रधानमंत्री बनते ही OBC नेताओं ने मंडल कमीशन लागू करवाने का दबाव डाला। वी पी सिँह ने बहानेबाजी की पर अन्त में निर्णय करने के लिए चौ. देवीलाल की अध्यक्षता मेँ एक कमेटी बनायी।
याद रहे कि मंडल कमीशन के चैयरमैन बी. पी. मंडल यादव थे, शायद इसीलिए मंडल कमीशन की लिस्ट में उन्होने यादवों को तो शामिल कर लिया मगर जाटों को शामिल नही किया।
चौधरी देवीलाल ने कहा कि इसमे जाटों को शामिल करो फिर लागू करो मगर ठाकुर वी पी सिँह इनकार कर दिया।

चौधरी देवीलाल नाराज होकर कांशीराम जी के पास गये और पूरी कहानी सुनाकर बोले मुझे आपका साथ चाहिये। कांशीराम जी बोले कि 'ताऊ तुझे जनता ने "Leader" बनाया मगर ठाकुर ने "Ladder" (सीढी) बनाया।
तेरे साथ अत्याचार हुआ और दुनिया में जिसके साथ अत्याचार होता है कांशीराम उसका साथ देता है।' कांशीराम जी और देवीलाल ने वी पी सिंह के विरोध में एक विशाल रैली करने वाले थे। उसी दौरान शरद यादव और रामविलास पासवान ने वी पी सिंह से मुलाकात की। उन्होँने वी पी से कहा कि हमारे नेता आप नही बल्कि चौधरी देवीलाल है। अगर आप मंडल लागू कर दे तो हम आपके साथ रहेंगे अन्यथा हम भी देवीलाल और कांशीराम का साथ देंगे।
ठाकुर वी पी सिँह की कुर्सी संकट से घिर गयी। कुर्सी बचाने के डर से वी पी सिंह ने मंडल कमीशन लागू करने की घोषणा कर दी।
सारे देश मेँ बवाल खङा हो गया। Mr. Clean से Mr. Corrupt बन चुके राजीव गांधी ने बिना पानी पिये संसद में 4 घंटे तक मंडल के विरोध में भाषण दिया।
जो व्यक्ति 10 मिनिट तक संसद में ठीक से बोल नहीं सकता था, उसने OBC का विरोध अपनी पूरी ऊर्जा से पानी पी-पी कर किया और 4 घंटे तक बोला।
वी पी सिंह सरकार गिरा दी गयी। चुनाव घोषणा की हुयी और एम नागराज नाम के ब्राह्मण ने उच्चतम न्यायालय में आरक्षण के विरोध में मुकदमा (केश) कर दिया ।
इधर राजीव गांधी ने जो प्रभाकरण से वादा किया था वो पूरा नही कर सके थे बल्कि UNO के दबाव मे ऊन्होँने शांति सेना श्रीलंका भेज दी थी। राजीव गांधी के कहने पर प्रभाकरण के साथी कानाशिवरामन को BOMB बनाने की ट्रेनिँग दी गयी थी। जब प्रभाकरण को लगा कि राजीव गाँधी ने धोखा किया। उसने काना शिवरामन को राजीव गांधी की हत्या कर देने का आदेश दिया और मई 1991 मे राजीव गांधी को मानव बम द्वारा ऊङा दिया गया। एक बार फिर माओ का कथन सत्य सिद्ध हुआ।और मंडल के भूत ने राजीव गांधी की जान ले ली।

राजीव गांधी हत्या का फायदा कांग्रेस को हुआ। कांग्रेस के 271 सांसद चुनकर आये। शिबु सोरेन व एक अन्य को खरीदकर कांग्रेस ने सरकार बनायी। वी पी नरसिंम्हराव दक्षिण के ब्राह्मण प्रधानमंत्री बने।

दूसरी तरफ मंडल कमीशन के विरोध मे Supreme court के 31 आला ब्राह्मण वकील सुप्रीम कोर्ट पहुँच गये।
लालू यादव बिहार के मुख्यमंत्री थे, पटना से दिल्ली आये। सारे ब्राह्मण-बनिया वकीलों से मिले। कोई भी वकील पैसा लेकर भी मंडल के समर्थन में लङने के लिऐ तैयार नही था।
लालू यादव ने रामजेठमलानी से निवेदन किया मगर जेठमलानी Criminal Lawyer थे जबकि यह संविधान का मामला था, फिर भी रामजेठमलानी ने यह केस लङा। मगर SUPREME COURT ने 4 बङे फैसले OBC के खिलाफ दिये।
1. केवल 1800 जातियों को OBC माना।

2. 52% OBC को 52% देने की बजाय संविधान के विरोध में जाकर 27% ही आरक्षण होगा।

3. OBC को आरक्षण होगा पर प्रमोशन मेँ आरक्षण नहीँ होगा।

4. क्रीमीलेयर होगा अर्थात् जिस OBC का INCOME 1 लाख होगा उसे आरक्षण नहीँ मिलेगा।

इसका एक आशय यह था कि जिस OBC का लङका महाविद्यालय मेँ पढ रहा है उसे आरक्षण नहीँ मिलेगा बल्कि जो OBC गांव मेँ ढोर ढाँगर
चरा रहा है उसे आरक्षण मिलेगा।
यह तो वही बात हो गई कि दांत वाले से चना छीन लिया और बिना दांत वाले को चना देने कि बात करता है ताकि किसी को आरक्षण का लाभ न मिले।
ये चार बङे फैसले सुप्रीम कोर्ट के सेठ जी ऍव भट्टजी ने OBC के विरोध मेँ दिये। दुनिया की हर COURT में न्याय मिलता है जबकि भारत की SUPREME COURT ने 52% OBC के हक और अधिकारों के विरोध का फैसला दिया।
भारत के शासक वर्ग अपने हित के लिऐ सुप्रीम कोर्ट जैसी महान् न्यायिक संस्था का दुरूपयोग किया।
मंडल को रोकने के लिऐ कई हथकंडे अपनाऐ हुऐ थे जिसमें राम मंदिर आन्दोलन बहुत बङा हथकंडा था। उत्तर प्रदेश मेँ बीजेपी ने मजबूरी मेँ कल्याण सिंह जो कुर्मी थे उनको मुख्यमंत्री बनाया।
आपको बताता चलूं की कांशीराम जी के उदय के पश्चात् ब्राह्मणोँ ने लगभग हर राज्य में OBC मुख्यमंत्री बनाना शुरू किये ताकि OBC का जुङाव कांशीराम जी के साथ न हो। इसी वजह से एक कुर्मी को मुख्यमंत्री बनाया गया।

आडवाणी ने रथ यात्रा निकाली। नरेन्द्र मोदी आडवाणी के हनुमान बने। याद रहे कि सुप्रीम कोर्ट ने मंडल विरोधी निर्णय 16 नवम्बर 1992 को दिया और शासक वर्ग ने 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद गिरा दी गयी। बाबरी मस्जिद गिराने मे कांग्रेस ने बीजेपी का पूरा साथ दिया। इस प्रकार सुप्रिम कोर्ट के निर्णय के बारे में OBC जागृत न हो सके, इसीलिए बाबरी मस्जिद गिराई गयी।
शासक वर्ग ने तीर मुसलमानों पर चलाया पर निशाना OBC थे। जब भी उन पर संकट आता है वे हिन्दु और मुसलमान का मामला खङा करते हैं। बाबरी मस्जीद गिराने के बाद कल्याणसिंह सरकार बर्खास्त कर दी गयी।
दूसरी तरफ कांशीराम जी UP के गांव गांव जाकर षडयंत्र का पर्दाफाश कर रहे थे। उनका मुलायम सिंह से समझौता हुआ। विधानसभा चुनाव हुए कांशीराम जी की 67 सीट एवं मुलायम सिँह को 120 सीटें मिली। बसपा के सहयोग से मुलायम सिंह मुख्यमंत्री बने।
UP के OBC और SC के लोगों ने मिलकर नारा लगाया "मिले मुलायम कांशीराम हवा मेँ ऊङ गये जय श्री राम।"

शासक जाति को खासकर ब्राह्मणवादी सत्ता को इस गठबन्धन से और ज्यादा डर लगने लगा।
इंडिया टुडे ने कांशीराम भारत के अगले प्रधानमंत्री हो सकते हैं ऐसा ब्राह्मणोँ को सतर्क करने वाला लेख लिखा। इसके बाद शासक वर्ग अपनी राजनीतिक रणनीति में बदलाव किया। लगभग हर राज्य का मुख्यमंत्री ऊन्होनेँ शूद्र(OBC) बनाना शुरू कर दिये। साथ ही उन्होने दलीय अनुशासन को कठोरता से लागू किया ताकि निर्णय करते वक्त वे स्वतंत्र रहें।

1996 के चुनावों में कांग्रेस फिर हार गयी और दो तीन अल्पमत वाली सरकारें बनी। यह गठबन्धन की सरकारें थी। इन सरकारों में सबसे महत्वपुर्ण सरकार H.D. देवेगौङा (OBC) की सरकार थी जिनके कैबिनेट में एक भी ब्राह्मण मंत्री नही था। आजाद भारत के इतिहास मे पहली बार ऐसा हुआ जब किसी प्रधानमंत्री के केबिनेट मे एक भी ब्राह्मण मंत्री नही था। इस सरकार ने बहुत ही क्रांतिकारी फैसला लिया। वह फैसला था OBC की गिनती करने का फैसला जो मंडल का दूसरी योजना थी, क्योँकि 1931 के आंकङे बहुत पुराने हो चुके थे। OBC की गिनकी अगर होती तो देश मे OBC की सामाजिक, आर्थिक स्थिति क्या है और उसके सारे आंकङे पता चल जाते। इतना ही नही 52% OBC अपनी संख्या का उपयोग राजनीतिक ऊद्देश्य के लिऐ करता तो आने वाली सारी सरकारेँ OBC की ही बनती। शासक वर्ग के समर्थन से बनी देवेगोङा की सरकार फिर गिरा दी गयी।
शासक वर्ग जानता है कि जब तक OBC धार्मिक रूप से जागृत रहेगा तब तक हमारे जाल मेँ फँसता रहेगा जैसे 2014 मेँ फंसा। शायद जाति अधारित गिनती ओबीसी की करने का निर्णय देवेगौङा सरकार ने नहीं किया होता तो शायद उनकी सरकार नही गिरायी जाती।
ब्राह्मण अपनी सत्ता बचाने के लिये हरसंभव प्रयत्न में लगे रहे। वे जानते थे कि अगर यही हालात बने रहे थे तो ब्राह्मणों की राजनीतिक सत्ता छीन ली जायेगी।
जो लोग सोनिया को कांग्रेस का नेता नहीँ बनाना चाहते थे वे भी अब सोनिया को स्वीकार करने लगे।
कांग्रेस वर्किग कमेटी मे जब शरद पवार ने सोनिया के विदेशी होने का मुद्दा उठाया तो आर.के. धवन नामक ब्राह्मण ने थप्पङ मारा। पी ऐ संगमा, शरद पवार, राजेश पायलट, शरद पवार, सीताराम केसरी, सबको ठिकाने लगा दिया। शासक वर्ग ने गठबन्धन की राजनीति स्वीकार ली।
उधर अटल बिहारी कश्मीर पर गीत गाते गाते 1999 मे फिर प्रधानमंत्री हुऐ। अगर कारगिल नही हुआ होता तो अटल फिर शायद चुनकर आते। सरकार बनाते ही अटल बिहारी ने संविधान समीक्षा आयोग बनाने का निर्णय लिया।
अरूण शौरी ने बाबासाहब अम्बेडकर को अपमानित करने वाली किताब 'Worship of false gods' लिखी। इसके विरोध मेँ सभी संगठनो ने विरोध किया। विशेषकर बामसेफ के नेतृत्व मेँ 1000 कार्यक्रम सारे देश में आयोजित किये गये। अटल सरकार ने अपना फैसला वापस (पीछे) ले लिया।
ये भी नया हथकंडा था वास्तविक मुद्दो को दबाने का। फिर 2011 में जनगणना होनी थी। मगर OBC की जनगणना नहीँ करने का फैसला किया गया। इसलिए भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में संख्याबल के हिसाब से शासक बनने वाला ओबीसी वर्ग सिर्फ और सिर्फ ब्राह्मणवादी/मनुवादी शासकों का पिछलग्गू बन कर रह गया है। वो अपना नुकसान तो कर ही रहा है, साथ में अपने दलित भाई बंधुओं का भी नुकसान कर रहा है, जो ब्राह्मणवादी सत्ता को समाप्त करने का निरंतर प्रयत्नशील हैं

Saturday, July 8, 2017

आखिर कौन है ये शिर्डी के 'साईबाबा'

*आखिर कौन है ये शिर्डी के 'साईबाबा' , अक्कलकोट के 'स्वामी समर्थ' और शेगाव के 'गजानन महाराज' ?*

ता. 19 जुलै 1994 को संपादक दिपक तिलक ईनका सह्याद्री अंक मे "दुसरा नानासाहब पेशवा ही साईबाबा है" यह लेख प्रसिद्ध हूआ था। लेखक अरुण ताम्हणकर ईनोने रहस्योद्घाटन करते हूए एक अज्ञात साधु का आधार लिया है । ऊनका ये लेख दै. मुलनिवासी नायक के पास ऊपलब्ध है । ताम्हणकर ईस लेख मेँ जो कहते है ऊसका सारांष तो यही कहता है सदाशिवराव पेशवा ही स्वामी समर्थ है। तात्या टोपे ये शेगांव का गजानन महाराज है। दुसरा नानासाहब पेशवा ही साईबाबा है। लेखक ताम्हनकर को बाबा के प्रकटिकरण मान्य नही, वे कहते है कि, ये बाबा लोग अचानक प्रकट कैसे हूए? साधारण आदमी के तरह माँ के पेट से जनम क्यो नही लिया? स्वजाति के बारेमे अपनने ऊलटा सिधा बोल दिया, ईसके लिए ताम्हणकर ने अपना मुँह बंद किया तो कभी खोला ही नही। ब्रामणो ने स्वामी समर्थ महाराज ईनके कई जगह मठ स्थापण किये। अक्कलकोट, मंगलवेढा, चिपलुण, अहमदनगर, कल्याण, दादर, गिरगांव (महाराष्ट्र) ईन प्रमुख संस्थानो (मठ) मे स्वामी का प्रकट दिन हर साल मनाया जाता है । और हर मठो मे खालि सिंहासन है । क्यो कि सिर्फ ब्रामण ही जानते है की स्वामी समर्थ ये पेशवा सदाशिवरावही है । ईस प्रकरण का शोध लेने के लिए प्रत्यक्ष कुछ मठो मेँ भी जाकर देखा है। यह लेख किसीकी भावनाओ को ठेच पहूचाने के लिए नही लिखा गया है । सामान्य जनता को ब्रामणी षडयंत्र समझे, गुप्त बाते समजकर अंधश्रद्धा का खात्मा हो यही हेतु है। पानिपत कि तीसरी लडाई ता. 13 फरवरी 1760 को पटदुर यहा विश्वासराव पेशवा ईनके साथ सदाशिवराव पेशवा को मिशन पर भेजने का निर्णय लिया गया। ग्वालियर होकर ता 30 मई 1760 को तोफ, रसद, बारुद, घोडदल, कुछ औरते लेकर सव्वालाख फौज निकली। अहमदशाह अब्दाली चौकन्ना हो गया, वह कुशल सेनापती था ऊपर से पेशवाओ मे चालाकी का अभाव था। सदाशिवराव ये कुत्सित जिद्दि स्वभाव के थे (ऐसा ब्रामण कादंबरीकारो ने लिख कर रखा है) ता. 14 जनवरी 1760 को पानिपत यहा लडाई हूई। विश्वाराव ईनकि गोलि लगने से म्रुत्यु हो जाति है तो सदाशिवराव बच्चो कि तरह रोने लगते है ईससे सैनिको का मनोबल कम होता है । सदाशिवराव को बिना लडखडाए मैदान खडा रहना आवश्यक था। पर अचानक सदाशिवराव मैदान मे से गायब हो गये (म .यु. भा. ईतिहास पेज क्र 112)। ईतिहास मे पाणिपत कि लडाई का वर्णन सव्वा लाख चुडिया तुट गई ऐसा किया गया है । स्वामी समर्थ अचानक ऊसी समय 1760/61 मंगलवेढा (महाराष्ट्र) को प्रकट हूए स्वामी समर्थ के प्रकटिकरण से पाणिपत कि लडाई का घटनाक्रम जुडता है ।पहले तो मंगलवेढा गांव के लोग ऊन्हे नग्न, मतिमंद, पागल व्यक्ती समजते थे। कुछ सालो में ही ईस तरुण नग्न मनुष्य का दिगंबर बाबा हो गया। (गांधिजी भि सव्वालाख पट चालाक थे ऊनोने प्राप्त किया हूआ महात्मापन एकनंबर माडल है।) स्वामि समर्थ का चरित्र ई. स. 1818 को ब्रामण गोपलबुवा केलकर ने स्वामी कि पहलि बखर(Historical document) लिखि । गोपालबुवा ये स्वामी के बहुतसी गुप्त बाते जानने वाले शिष्य थे । ऊसके बाद ता. 09 मई 1975 को रामचंद्र चिंतामण ने बखर का पुन:लेखन किया । अनंतकोटी ब्रम्हांडनायक राजाधिराज स्वामी समर्थ महाराज ईनका जनम कहा हुआ? वो छोटे के बडे कहा हुए ? ऊनके मातापिता कौन ? ऊनकी जाति कोनसी ? ईनमसे कोई भि बातो का पता नही चलता ऐसा बखर मे लिखा है । स्वामि मंगलवेढा मे 12 साल रहे । गांव के लोग ऊनको मतिमंद मनुष्य समजते थे ।बसप्पा तेलि के घर मे रहने वाला यह नग्न व्यक्ती सिंदुर लगाए हूए पत्थरो पर पेशाब करता था ।स्मशान मे कबरो पर संडास करता था ।बसप्पा तेलि के घर के चुल्हे मे संडास करता, ये सब स्वामी की लिला थी, वे अवतारी पुरुष थे ऐसा बखर कहती है (अंग्रेजो को कुछ ब्रामण साधु सन्यासीयो के जिवन चरीत्र के सबुत मिले एक जानकारी हमारे पढने मे आयी के एक साधु अपने अनुयाईयो को अपनी संडास खाने देता और ऊसके बाद ही ऊसे अपना चेला बनाता )। परंतु बसप्पा कि पत्नी मात्र अपना पती कहासे ईस मतिमंद पगले के पिछे लग गया ईसके लिए दुखी थी । रोजि रोटी करके पेठ भरनेवाला यह तेलि परिवार बहुत ही गरीब मे जी रहा था ।अचानक बसप्पा के परिवार को कहासे तो सोने की खान मील गयी और उनकी गरीबी हमेशा के लिए नष्ट हो गयी । असलियत मे स्वामी को मिलने के लिए मालोजिराव पेशवा मंगलवेढा आते थे ।ऊन्होने स्वामी का महिने का खर्चा बसप्पा को देने की व्यवस्थ लगा रखी थी । स्वामी कभी कभी बसप्पा के परिवारवालो को घर से बाहर निकाल देते और दरवाजे के सामने लाठी लेकर बैठते ।पेशवाओसे महिना अर्थसहाय्य मिलने के बाद गणपत चोलप्पा नाम का नौकर स्वामी की सेवा के लिए ऊपस्थित हो गया ।मै टोली तयार करता हू, स्वामी मंगलवेढा मे रहते समय ऊन्हे जबभी पागलपन का झटका आता तो ऊने शांत करने के लिए चेले गांव कि मतिमंद स्त्रि सरस्वती सुनारीन को लाते ।यह मतिमंद स्त्रि लाठी और बगल मेँ फटे कपडो का गठ्ठा लेकर चेलो के पिछे भागती एक चेला कहता 'ज्ञानबा तुकाराम' अर्थात दुसरा कहता 'पगली का क्या काम' यह शरारत देख स्वामी जोरजोरसे हसते इतना कि ऊनका पलंग भि हिलता ।12 साल रहने के बाद भी स्थीती नही सुधारी ।अक्कलकोट मे चिंतोपंत टोल के यहासे एरंडी की सुखी लकडियो के हथेलिभर तुकडे करते । ऊनमे मिट्टि भरते और फिर पाँच पाँच सात सात तुकडे सैनिक बंदुक जैसे रखते है उसि प्रकार लाईन से रखते । ये ऊपक्रम कई महीने चलता किसिने अगर पुछा तो स्वामी कहते मै टोली (पलटन) तयार करता हू ।ऊसके बाद स्वामी अक्कलकोट मे दुसरा खेल खेलने लगे । अक्कलकोट मे लक्ष्मी नाम कि ऐक तोफ है वहा जाकर तोफ के मुंह मे सिर डाल कर घंटो बैठते ।बुधावारपेठ मे बडबडाते 'अब हिंदु का कुछ रहा नही घोडा गया हाति गया पालखि गया सब कुछ गया' और बिचमेही चिल्लाते सरबत्ती लगाव! यह सब पाणिपत की हार का परिणाम तो नही ? आज तक सदाशिवपेठी लेखक पेशवाओ के गुण गाते नही थके । स्वामी, राऊ ईन कादंबरीयो मे 'तोतया' कहके ईसि पागलपण का वर्णन किया है ।जो पेशवा गिरफ्तार हुवा क्या वो पागल था ? क्या वो पागलपण का नाटक करता था ? ऐसा प्रश्न कादंबरी पढने वालो को नही पडा ।                     स्वामी एक जगह कभी बैठते नही थे । दिन मे सात आठ बार वो जगह बदलते ईसिलीए ऊन्हे चंचल भारती भी कहते । अक्कलकोट मे स्वामी के स्वतंत्र आश्रम की व्यवस्था की गयी थी । ईस काम मे राणी साहब बहूत ज्यादा ध्यान देती । ईस प्रकार ब्रामणी खोपडी ने मतिमंद सदाशिवराव का स्वामी समर्थ महाराज किया था ।स्वामी के दर्शन से हमारे तूम्हारे प्रश्न छुटते है , भाकड गाय दुध देती है , स्त्रियो को बच्चे होते है । ऐसा प्रचार अडोस पडोस के गांवो मे किया जाता प्रचार मे ब्रामण स्त्रियो का भी सहभाग रहता । पेशवाओ के दफ्तर के दस्तावेजो के प्रमाण से पता चलता है की ब्रम्हेंद्रस्वामी धावडशिकर ये स्वामी के भेस मे शाहूकार और बद्चलन आचरण के थे । ब्रंम्हेँद्रस्वामी के पास लगभग 20 स्त्रि दासिया थी । जहा जहा स्वामी रहते वहा वहा स्त्रि दासिया जाती । ऊनमेँसे कुछ प्रसिद्ध दासियो के नाम ईस प्रकार से है सजनी, गंगी, सोनी, लक्ष्मी, मानकी, नागी, राधी, गोदी, नथी, कृष्णी, यशोदा, नयनी, आनंदी, ई . ये सभी पेशवाओ कि तरफ से नजराणा था ऐसा जानकारो का कहना है । ईतनाही नही जिनको पुत्रप्राप्ती नही होती थी ऊनको स्वामी के पास लाया जाता और ऊनको स्वामी का विशिष्ट प्रसाद दिया जाता । कुछ रातो को तो स्वामी के मठो से अनैतिक मार्ग से पुत्रप्राप्ती की जाती । ईस सारे खेल पर पेशवाओ के जबरदस्ती कि वजह से परदा पड जाता । यही रित स्वामी समर्थ कि थी ऐसा दस्तावेजो के आधार पर प्रमाणीत किया जा सकता है।                                                     "मुंगी पैठण की विठाबाई"                  स्वामी के दर्शन को भक्त आने लगे। आश्रम मे गाय, बकरी, कुत्ते, बिल्लियो की संख्या बढने लगी । केशर कस्तुरी के मिश्रण करके पेशवाओ की तरह सीर पर गंध लगाया जाता स्वामी कभी दाढी रखते कभी निकालते वे लहरी स्वभाव के थे ।स्त्रीयोँ के सत्र मेँ पुरुषो को प्रवेश नही था । स्वामी को कभी कभी साडी चोली पहनाकर बिठाया जाता पर स्वामी अधिकतर लंगोठ पहनकर बैठना पसंद करते ।मुंगी पैठणकी विठाबाई ये भि स्वामी की दासी थी । एकबार ऊसने चोलप्पा गणपत को साथ मेँ लेकर पंढरपुर जाने का विचार किया ।स्वामी को ये समजने के बाद स्वामी ने सबके सामने उसको पुछा की क्या ? अब तक विठोबा का लिंग पकडने नही गयी ? यह सुनकर वहा ईकठ्ठा हूई सभी औरतो ने शर्म से गर्दन निचे कर दी (स्वामी समर्थ बखर पेज क्र. 46)।                                                        " सुंदराबाई प्रकरण "                  दिन ब दीन अक्कलकोट मे भक्तो कि संख्या बढती गयी वैसे संस्थान मे पैसो की आमदनी भी बडी । उसी दौरान सुंदराबाई नाम की तरुण विधवा स्वामी की दासी बन गयी ।वो गणपत चोलप्पा बालप्पा ईनको आदेश देने लगी । तो स्वामी ऊसको कहते " ऐ रांड नौकरणी ये क्या तेरे घर के नौकर है ? "। स्वामी को खाना खिलाना, नहाना, दर्शन के लिए तयार करना ये सभी काम वो करती ।ऊसने स्वामी को ऊठने को कहा तो वो उठते, सोने को कहा तो सोते ।ईतनाही नही भक्त दर्शन के वक्त सुंदरा स्वामी को पत्नी कि तरह चिपककर बेठने लगी ।संस्थान का अनगिनत पैसा सुंदराबाई हडप करने लगी ।तक्रार करने पर शिष्यो ने ऊसे जेल मे डाल दिया । स्वामी अवतार थे पर स्त्रिलंपट थे आखिर मामला पोलीस तक पहूचना जरुरी था, स्वामी समर्थ के अवतारवाद पर प्रश्नचिन्ह खुद स्वामी ने ही लगाया। ये अवतार न होकर पाखंड था ये सिद्ध हो चुका है ।                   स्वामी की बखर मे 264 प्रकरण है, वो सब को येहाँ सभी देणा संभव नही है । एक बार कर्वे नाम का ब्राम्हण स्वामी को मिलने आया, कर्वे ईनकी जवान लडकी बिगड़ गयी थी । स्वामी ने कहा " होली किजिए " कर्वे को बडा ही धक्का पहूचा तो ऊनोने पुछा आपकी जाती कोनसी ? तो स्वामी ने जवाब दिया " यजुर्वेदी - ब्रामण, गोत्र- कश्यप, रास - मिन " (स्वामी समर्थ बखर पेज क्र 58 ) । ई स 1800 को स्वामी की मृत्यु हो गयी स्वामी तब वे सत्तर साल के थे । ई स 1800 मे चैत्र शुद्ध पुर्णीमा को ऊनका मृत्यु हूआ स्वामी की प्रेतयात्रा को हाथी से सजाये हुए, घोडे की तोफदार जरिपटका के पेशवे का निषाण बारुदकाम करने वाले ऐसा माहौल था । स्वामी पर भरजरी पोशाख व अलंकार चढाए गये । स्वामि को आखिर मेँ सुगंधी पेटी मे बंद किया गया ऐसा बखर मे लिखा है। परंतु 14 जनवरी 1761 को मैदान से भागे हुए सदाशिवराव का अंत हुआ था ।स्वामी मंगलवेढा मे रहते समय पेशवाऔ की तरफ से उनको मिलने वाला खर्चा कभी बंद नही किया गया। स्वामी ने एक बार मालोजिराव के गाल पर थप्पड लगाई ऊसका कारण यही था कि सदाशिवराव ही स्वामी समर्थ थे । आगे यही प्रयोग तात्या टोपे और नानासाहब पेशवा के साथ किया गया । क्योकी ब्रामण मतिमंद पागल आदमी को स्वामी समर्थ बना सकते है तो सिर से पैरो तक ठिक ठाक दिखने वाले तात्या टोपे को गजानन महाराज और नानासाहब पेशवा को शिर्डी के साईबाबा क्यो नही बना सकते ?                                                " तात्या टोपे ही है गजानन महाराज "                 1818 को भिमा कोरेगाव पेशवाओ की हार हुई ।भारत मे अंग्रेजो कि सत्ता प्रस्थापित हूई । अंग्रेजो के विरुध कयी लड़ाईया हुई उनमेसे 1857 की लड़ाई एक संगठित प्रयास था । परंतु तात्या टोपे, नानासहब पेशवा, लक्ष्मीबाई ईनके नेतृत्व मे किया गया यह प्रयास असफल साबित हुआ ।हारने के बाद ये लोग भूमिगत हो गए । नानासाहब पेशवा, तात्या टोपे, रंगो बापुजी ये लोग साधु पंडीतो का भेस धारण कर भटक रहे थे ('रंगो बापुजी' लेखक-प्रबोधनकार ठाकरे-(शिवसेना के बाल ठाकरे के पिता), पान क्र 270) कई लोगो को फासी दि गयी पर परंतु ऊनके रिश्तेदारो ऊनकी लाश पहचान से ईनकार कर दिया । करीब एक साल पहले कि बात है दैनिक जागरण मे एक व्रुत्त प्रकाशीत हूआ है , तात्या टोपे को फासी दि गई पर वो कोई दुसरा ही था , ऐसी खबर है । लेखक ताम्हणकर का कहना है की तात्या टोपे का वर्णन शेगांव के गजानन महाराज से मिलता जुलता है ,शेगांव मे प्रकट होने वाले गजान महाराज तात्या टोपे ही है ऐसा उनका स्पष्ट कहना है। साईबाबा और गजानन महाराज एकही वक्त मे होके गए । दोनो को चरित् मे दोनो की कभी मुलाकात होने की खबर नही मिलती ।परंतु जब गजानन महाराज का मृत्यु हुआ तो इधर साईबाबा ' मेरा गया रे ' कहकर दुःख व्यक्त कर रहे थे । असल मे ये लोग संत महापुरुष थे ही नही ब्रामणो ने बनाए हुए बेहरुपीये थे । सुख दुःख के भी आगे निकल चुके संतो से तो ये अपेक्षीत नही की वे अपना सेनापति मरने का दुःख जाहिर करे पर इसका दुःख नानासाहब को हुआ । ' सांईबाबा मतलब दुसरा नानासाहब पेशवा ' ! साई यह नाम इसा से लिया गया है । केसरी प्रकाशन ने प्रकाशित किया गया ' पेशवा घराणो का ईतिहास ' ईस किताब मे लेखक प्र ग ओक कहते है दुसरे बाजिराव ने 7 जुन 1827 को गोविंद माधवराव भट ईस लडके को गोद लिया । उसकी जनतारिख 6 दिसंबर 1824 ऐसी है । मतलब 1857 के युद्ध मे दुसरे नानासाह पेशवा 32 साल के थे ।                नानासाहब पेशवा को संस्कृत , पर्शियन(ईराणी) , ऊर्दू ईन भाषाओ का ज्ञान था । नानासाहब पेशवा हमेशा किनरवापी कुर्ता डालते । शिर्डी के साईबाबा का द्वारकामाई चावडी के पास का फोटो सबके परिचय की है । 28 फरवरी 1856 को अंग्रेजो ने नानासाहब पेशवा को पकडने के लिए इनाम जाहिर किया था । रंग गेहुआ , बडी आंखे , छह फिट दो इंच लंबाई, सिधा नाक, साथ मे तुटे कान का नोकर ऐसा भेस जाहिर किया गया था । नानासाहब समझ कर दूसरे किसीको ही फासी दी गई थी । असल मे नानासाहब कबके फरार हो चुके थे । साई यह गांव मै जहा पे पढता हू ऊधर रायगड जिले (महाराष्ट्र) के चिरनेर के पास है । परंतु साई यह नाम ब्रामणो ने येशु ख्रिस्त के ईसा का उलटा लिया है । ब्रामण मतिमंद पागल सदाशिवराव को स्वामी बना सकते है तो नानासाहब पेशवा को शिर्डी का साईबाबा भि बना सकते है ।ईन स्वामी बाबा महाराजाओ को लोगो को गाली देने कि आदत थी । और स्वामी समर्थ और साईबाबा ईनकी काठी एक जैसी ही है । और काठि पर हात रखने का तरीका भी एक जैसा है यह विशेष। ओर दुसरी विशेषता तो यह है की इनको कई तरह की गंदी आदते भी थी उनमे से एक गजानन महाराज की गांजा पिते हूए एक तसविर बहुत लोकप्रिय है । अय्याशीयो से ही गांजा पीने की आदत लगती।               मुलनिवासी बहूजनो के संत मोह, माया, संपत्ती से दुर रहकर लोगो को जिने का मार्ग दिखाते । ' व्रत काया कल्पो से पुत्र होती, तो क्यो करने लागे पती ' । यह भावना विज्ञानवादी विचारधारा का ऊदाहरण है । चिलिमधारी गांजाधारी फोटो का मानसशास्त्रिय परिणाम छोटे बच्चो तथा समाज पर क्या होता होगा ? वर्तमान मे जो काला पैसा कमाते है , भाईगिरी , चोरी खुन करके पैसा कमाते है , बडे बडे गुंडो के आश्रय से राजनिती मे आते है । 'चरीत्रहीन काम करके मै ही चरीत्रवान ' ईसलिए दर्शन के लिए बिना किसी लाईन मे लगके दर्शन के लिए ज्यादा का पैसा देकर शार्टकट दर्शन लेते है । अमिताभ बच्चन का दर्शन घोटाला तो बडा ही फेमस है । बाल ठाकरे ने भि साईबाबा को क्या क्या नही दिया था यह प्रकरण भि बडा ही फेमस हूआ था । काँग्रेस, राष्ट्रवादी , बिजेपी के नेताओ ने पुंजिपतियो ने कितना पैसा ईन मंदिरो को दिया ईसका कोई हिसाब है ? । यह राजस्व प्राप्त करने का नया तरीका है क्या ? भारत को आजादी मिलने के बाद संस्थानिको के संस्थान विलीन किए गए बदले मे उनको तनख्वा देने कि व्यवस्था कि गई कुछ दिनो बाद भारत सरकार ने तनख्वा बंद किया । ऊसके बाद संस्थाने राजापद इतिहासगत हो गई । परंतु आजादी के बाद अस्तित्व बनाए रखने वाली ब्रामणी व्यवस्था की संस्थाने गब्बर होती जा रही है । इन संस्थानो के आश्रय से अंदर बैठने वाले बुवा , बापु , बाप्या , स्वामी, दादा, नाना-महाराज, सद्गुरू इनकी कृपा से हमारे तुम्हारे प्रश्न चुटकी बजाते ही छुट जाएंगे ऐसा प्रचार यह ब्रामण और ऊनके दलाल हमेशा करते रहते है । धर्म , भक्ती, सेवा, श्रद्धा, अध्यात्म, ब्रामणी कर्मकांड ईनको आकर्षित होकर खुद ही ब्रामणी संस्थानो मे प्रवेश करते हैँ । नसिब पर विश्वास रखकर जिने लगते है । दैववादी बन जाते है । ब्रामणी कर्मकांडो के जाल मे फस चुके लोगो का कर्मवाद पर से विश्र्वास कम होते जाता है ओर वो ब्रामणो का मानसिक गुलाम बन जाता है। ईनमे अशिक्षित शिक्षितो के साथ अमिर गरीब सभि का जमाव रहता है । विशेषता तो यह है की मानसिक विकलांग लोग खुद को ब्रामणी व्यवस्था के गुलाम कभी नही समझते । ईसकी कल्पना तक नही करते ।                  गुलामी की बेडीया तोडने का काम तो दुर ही ।ईन संस्थानो मे श्रद्धा के नाम पर लोगो से पैसा निकालने की योजनाए बनाई जाती है ।काकड आरती, महाआरती ,पालखी , ऊत्सव ,अभिषेक ,दर्शन ऊत्सव ,बेडिया, व्रत, मृतआत्माओ को खुश करना, चुटकी बजाते अमिर होना ,गुप्तधन, दिर्घायुष्य माला ,होम हवन ईन सब के द्वारा वो आपके जेब मे हात डालते हैं। इसतरह करोड़ो रुपयो का निधि रोज के रोज संस्थानो की दानपेटीयो मे झरने समान गिरते रहेगा ऐसी ब्रामणी षडयंत्रकारी योजना है । भारत के वित्तिय बजट से दस गुणा ज्यादा रकम मंदिरो मे हर साल जमा होती है, वो कहा जाती है? जहा पे भुखमरी से लोग मर जाते है, किसान आत्महत्या करते है , वही पे होम हवन करके लाखो रुपयो का दूध , दही , घी ,अनाज जलाया जाता है ।यही इस देश की दुविधा है । जिन पेशवा ब्रामणो ने छत्रपति शिवाजी महाराज को जहर देकर मारा वही ब्रामण पेशवा अर्थात साईबाबा, गजानन महाराज, स्वामी समर्थ हमारे प्रेरणास्त्रोत कैसे हो सकते है ? जिन पेशवा ब्रामणो ने अछुतो के गले मे मटकी बाँधकर उनका थुकना तक पाप होता है ऐसा माना, उनके पैरो के निशान भी जमीन पर नही दिखने चाहिए इसके लिए उनके कमर को झाडु लगाया, ऐसे लोगो को हम अपना प्रेरणास्त्रोत कैसे मान सकते है ? फुले , शाहू , आंबेडकर ईनोने जो 108 साल जो क्रांतीकारी संघर्ष किया , जिससे गले की मटकी दूर होके उसके जगह टाई आ गई । शरीर पर कोट, सुट अच्छे कपड़े आ गए । पैरो मे जूते आ गए । जिन ब्रामणो ने ओबिसी को शुद्र कहा आज लोकतंत्र मे वही ब्रामण राजा बने हुए है ।                 मुलनिवासी बहूजनो ने अपने महापुरूषो को प्रेरणास्थान मानना चाहीए । अपने बाप को ही बाप मानना चाहीए ।                  पेशवा ये विदेशी युरेशियन ब्रामण है । वे अंग्रेजो से झगडते वक्त हार गए और भाग गए अंग्रेज पकड़ेंगे इस डर से ईन लोगो ने दूसरा मार्ग अपनाया वो मतलब साधु, स्वामी बनना । शिर्डी के साईबाबा - दुसरा नानासाहब पेशवा , स्वामी समर्थ -सदाशिवराव पेशवा , गजानन महाराज - तात्या टोपे ये सभी पेशवा ब्रामण है यह इतिहास से सिद्ध हो चुका है । इन संस्थानो के मेडिकल, इंजिनिअरींग काँलेजेस है । यहा पे ब्रामणो के बच्चे पढते है और बाद पास होने के बाद इन विध्यार्थीयो से दो साल के लिए पुर्णकालिन कार्यकर्ता बनाकर काम करवाया जाता है ।आगे यही विध्यार्थी ब्रामणी व्यवस्था के कट्टर समर्थक कार्यकर्ता बनकर ब्रामणी व्यवस्था का मेंटेनन्स करने का काम करते है ।