Monday, March 20, 2017

हमेशा याद रखें '20 मार्च 1920' को.

हमेशा याद रखें कि आज ही के दिन, '20 मार्च 1920' को, 'माणगांव परिषद' हुई थी जिसमे दोनों महांपुरष 'छत्रपति शाहू जी महाराज' तथा 'डॉ भीम राव आम्बेडकर' इकट्ठे थे //

'माणगांव परिषद के कुछ 'अँश' .→ प्रचंड नाग …… सुनो ! ‘केलवकर’, हुआ यूँ कि, “ ‘मैं’ एक बार ‘सतारा’ गया था । हमारे लिए ही भोजन का कार्यक्रम चल रहा था । भोजन ‘ब्राह्मणी’ पद्धति का था । ब्राह्मण ‘रसोइये’ भोजन तैयार कर रहे थे । खाने का समय हो चला था । ‘स्नान’ कर ‘मैं’ यह देखने के लिए ‘घूमने’ लगा कि, भोजन की तैयारी कहाँ तक पहुंची है । बहुत सारे हंडे थे । उनके बीच ‘अंतर’ भी बहुत था । एक ‘नंग-धड़ंग’ ‘ब्राह्मण’ रसोईया हाथ में ‘बिल्ली’ लेकर इधर-उधर घूम रहा था । उसने मुझे देखा व बोला, “यहाँ ‘घूमने’ नहीं दिया जाएगा, आपके ‘छूने’ से सारा ‘गड़बड़ –घोटाला’ हो जाएगा /” इन ‘शब्दों’ के कान में पड़ते ही मेरा ‘कलेजा’, मुंह को आ लगा । उस ‘बिल्ली’ की ‘अपेक्षा’ मेरा ‘दर्जा’ निम्न है ? मैं ‘स्वयं’ से यह ‘प्रश्न’ पुछने लगा । ‘छत्रपति’ होते हुये भी, जहां मेरा ऐसा ‘अपमान’ होता हो, वहाँ ‘अस्पृष्यों’ का कितना ‘अपमान’ होता होगा ? इसी लिए मुझे लगता है कि, ‘महार’ बच्चों को, पास लेकर ‘खाना’ खाऊँ ।“
ऐसे ‘महान’, ‘संवेदनशील’ व ‘मानवतावादी’ राजा का वर्णन करते समय, ‘शब्द’ कम पड़ जाते हैं । इन ‘यूरेशियन ब्राह्मणो’ को ‘राजर्षि छत्रपति शाहू महाराज’ का , ‘छत्रपति शिवाजी महाराज’ के ‘वंशज’ का, कोल्हापुर’ रियासत के ‘मालिक’ का, ‘मराठों’ के ‘प्रतिनिधि’ का स्पर्श ‘अपवित्र’ लगता था लेकिन, ‘बिल्ली’ जैसे प्राणी का ‘स्पर्श’, अपवित्र नहीं लगता था । इसका मतलब वह ‘यूरेशियन ब्राह्मण’, ‘राजर्षि छत्रपति शाहू महाराज’ की अपेक्षा ‘बिल्ली’ को ‘पवित्र’ मानता था तथा ‘महाराज’ को, ‘अपवित्र’ मानता था । धन्य हैं वे ‘यूरेशियन ब्राह्मण’ और ‘धन्य’ है उनकी ‘वर्ण-व्यवस्था’ व ‘अस्पृश्यता’ । और ‘धन्य’ है आज के ‘यूरेशियन ब्राह्मण’ जो उपरोक्त सभी बातों का ‘समर्थन’ करते हैं ।
 

 ‘माणगाँव’ परिषद के बाद, ‘नागपुर’ में अखिल भारतीय ‘बहिष्कृत समाज’ की ‘परिषद’ 30 मई 1920 को, पुनः दोनों ‘महापुरुष’ इकट्ठा हुये । परिषद के अध्यक्ष, ‘राजर्षि छत्रपति शाहू महाराज’ थे । अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होने कहा – “ किसी को ‘अस्पृश्य’ कहना ‘निंदनीय’ है । आप ‘अस्पृश्य’ नहीं हैं । आपको ‘अस्पृश्य’ मानने वाले सभी ‘लोगों’ की ‘अपेक्षा’ आप अधिक ‘बुद्धिमान’, अधिक ‘पराक्रमी’, अधिक ‘सुविचारी’ व अधिक ‘त्यागी ‘ हैं व भारत के एक ‘घटक’ हैं । मैं आपको ‘अस्पृश्य’ नहीं मानता । हम सभी एक जैसे एक दूसरे के ‘भाई-बंधु’ हैं । निश्चित ही हमारे ‘अधिकार’ भी एक हैं । भाषण के अंत में उन्होने कहा, “ आपने मुझे ‘अपना’ माना है । अंतिम समय तक यह प्रेम ‘बनाये’ रखें । कितना भी ‘कष्ट’ हो, ‘त्रास’ हो उसकी ‘फिक्र’ न करें, मैं आपकी ‘उन्नति’ के ‘महान’ कार्य में ‘शामिल’ रहूँगा /”

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